TWO SONS OF BAHADUR SHAH ZAFAR, MIRZA JAWAN BAKHT AND MIRZA SHAH ABBAS
इतनी जगह कहाँ है दिल-ए-दाग़-दार में,
कितना है बद-नसीब 'ज़फ़र' दफ़्न के लिए
दो गज़ ज़मीन भी न मिली कू-ए-यार में।"
- बहादुर शाह ज़फ़र
Professor Mohammad Muqeem Founder Director of Aligarh College of Education, Anoopshahar Road, Aligarh Yome Jamhooria ke mubarak mauqe par Jhanda phehrate hue, saath mein Chief Guest Dr. Masood Ahmad, Guest of Honour Prof. Qurratul Ain Ali, Dr. Afsana Parveen, Dr. Nida Fatima, JNMC, AMU Aligarh mein Trauma Incharge Shahzad Baig, Nursing Officer Salman Usmani, Principal, Teachers, Staff and Students ne milkar Yaume Azadi manya.
Dr. Masood Ahmad ne bataya ki aaj ki nasal ko AZAADI muft mein mili hai. woh aandhi ki hawa ki aazadi ki tareh aish ki zindgi guzar rahe hain. yahi wajeh hai ki ghareeb mazdoor, kisan ke bachche IAS ban rahe hain aur ameer family ke bachchey Apple ke phone par Social Media mein apna qeemti waqt barbad kar rahe hain
DOOSRI janib pahiyon ke tube mein khareed kar lene wali azad hawa ki tareh discipline mein rehkar agar apna waqt study mein kharch karen to aap CIVIL SERVICES mein select ho sakte hain. Khushhal zindgi guzar sakte hain.
mundaerja zail taswwur karne par pata chalega ki hamare buzurg badshah BAHADUR SHAH ZAFAR KE DO SHEHZADON KA SAR QALAM KAR UNKO NASHTE MEIN PESH KIYA GAYA THA -----TAB BHARAT KI AWAM MEIN GHUSSA AUR JOSH PAIDA HUA AUR AAZAADI MILI THI.
HAMEN IN MUSALMANON KI QURBANION KI QADAR JANI CHAHIYE
AAZAADI ki मंगलवार, 7 नवंबर, 1862 को रंगून (अब यांगून) में आखिरी मुगल बादशाह बहादुर शाह ज़फ़र का सांसारिक सफर समाप्त हो गया। वो इसी मुल्क की ज़मीन पर ज़िंदगी के आखिरी साल बिता रहे थे, जिन्हें 1857 के विफल भारतीय विद्रोह के बाद अंग्रेज़ों ने उन्हें ज़ब्त कर निर्वासित कर दिया था।
बहादुर शाह ज़फ़र एक बहुआयामी शख्सियत थे। उन्हें एक विद्वान शायर और कला-प्रेमी राजा के तौर पर याद किया जाता है। 1837 में जब वो गद्दी पर बैठे, तब मुगल साम्राज्य पहले ही ब्रिटिश प्रभाव के नीचे कमज़ोर हो चुका था। अपने शासनकाल के दौरान उन्होंने ईस्ट इंडिया कंपनी के बढ़ते प्रभुत्व और मुगल सत्ता के क्षरण को देखा।
1857 के भारतीय विद्रोह ने कुछ समय के लिए मुगल साम्राज्य के पुनरुद्धार की उम्मीद जगाई थी। हालांकि, विद्रोह अंततः अंग्रेज़ों द्वारा कुचल दिया गया, और बहादुर शाह ज़फ़र को पकड़कर रंगून निर्वासित कर दिया गया।
उनके अंतिम वर्ष दुख और अलगाव से भरे थे। 87 साल की उम्र में वो दुनिया से विदा हुए, एक टूटे हुए शख्स के रूप में, जिन्हें उनके राज्य से छीन लिया गया था और अपने प्रियजनों से दूर कर दिया गया था।
बहादुर शाह ज़फ़र की विरासत कई पहलुओं वाली है। उन्हें खोए हुए वैभव और सांस्कृतिक समृद्धि के प्रतीक के रूप में याद किया जाता है, लेकिन एक दुखद शख्सियत के रूप में भी, जिन्होंने अपने वंश के पतन को देखा। उनकी शायरी, जो देशभक्ति और बीते जमाने की तड़प से ओतप्रोत है, आज भी भारत और उससे आगे कई लोगों के दिलों को छू लेती है।
उनकी मृत्यु का कारण स्पष्ट नहीं है, लेकिन माना जाता है कि वो बुढ़ापे और खराब स्वास्थ्य के कारण दुनिया से चले गए। उनका मकबरा यांगून, म्यांमार में स्थित है, और कई भारतीयों के लिए तीर्थस्थल बन गया है। उनकी पुण्यतिथि 7 नवंबर को भारत में याउम-ए-वफात के रूप में मनाई जाती है, एक दिन उनके जीवन और योगदान को याद करने के लिए।
"कौन कहता है कि ज़माना बदल गया है,
दिल अभी भी वही है,
जो दिल था फ़ारस के शाह का,
वो दिल अभी भी है दिल्ली के शाह का।"
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